माँ पर कहानी । पारिवारिक कहानिया। Maa Story in Hindi
बूढ़ी माँ की कहानी- वृद्धाश्रम
एक अम्मा हमारे घर के सामने ही फ्लैट में अपने बेटे बहु और पोतो के साथ रहती थी। अम्मा अक्सर बरगद के पेड़ के नीचे बैठी रहती । अम्मा का रंग थोड़ा सांवला, शक्ल से थोड़ी गुस्से वाली लगती थी।
बरगद के पेड़ की शीतल छाया में वे काफी देर बैठी रहती। अम्मा अक्सर बरगद के पेड़ से बतियातीं। पेड़ से वह अपना दुख-सुख साझा करतीं। पेड़ से बात करते करते वह एक डायरी में कुछ लिखतीं रहती और जब मन हल्का हो जाता, अपने घर लौट आतीं।
मेने देखा है अम्मा को रोज अपना दुख पेड़ को सुनते हुए, अपने अकेलेपन को पेड़ के साथ सांझा करते हुए। पेड़ को ही अम्मा ने अपना हमसफर मान लिया था।
में कुछ काम से 2–3 दिन के लिए शहर से बाहर गया था। आज ही अपने घर लौटा था।
आज अम्मा के घर में काफी देर से शोर सा हो रहा था। शायद आज किसी बात पर लड़ाई हुई होगी। आज भी अम्मा घर से निकल पड़ी थीं। अम्मा बिना लाठी के, खुद से बड़बड़ाती हुई तेज तेज चली जा रही थी।
मेने अम्मा को जाते हुए देख लिया था। में सोच रहा था की आज भी अम्मा बरगद के पेड़ की नीचे ही बैठेगी शायद। में अम्मा को देखे जा रहा था।
अम्मा अपने बरगद के पेड़ के पास पहुंची पर यह क्या आज तो पेड़ वहा है ही नही। मेने अपने पत्नी से पेड़ के बारे में पूछा तो पता चला बरगद का पेड़ सड़क बनाने वालों ने दो दिन पहले ही काट डाला था।
अम्मा जिससे अपना दुख सांझा करती वह पेड़ अब रहा नही। अम्मा पेड़ वाली जगह कुछ देर खड़ी होने के बाद वहा से वापस लौटती है।
सड़क टूटी पड़ी थी क्योंकि अभी सड़क का काम शुरू ही हुआ था। ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर अम्मा कहीं गिर नहीं जाएं, इस आशंका से मैं फुर्ती से सीढ़ियां उतरा और उनके पीछे दौड़ा।
मैंने अम्मा को आवाज लगाई, ‘ अम्मा कैसी हो, तेज धूप में कहां जा रही हो ?’
वे गर्दन घुमा कर बोली, “नरक में”।
अम्मा रुकी नहीं। बड़बड़ाती चलती रहीं, “बस अब और नहीं। रोज-रोज की किच-किच से तंग आ चुकी हूं। घर में मेरी कोई इज्जत है ही नही। इतने दिनों से सब सहती आ रही हु, पर कब तक? आज तो हद ही हो गई। अब नही रहना यहां”
‘क्या हुआ अम्मा, बताओ तो। मैं कुछ मदद करूं आपकी।’ मैंने उन्हें रोकना चाहा।
‘हां मदद करो ना, वृद्धाश्रम का पता बता दो। मैं अब यहां नहीं रह सकती।’ अम्मा की चाल पहले से तेज हो गई थी।
मैंने मोबाइल ऑन किया और गूगल पर सर्च करते हुए पूछा, ‘अम्मा, तुम वहां रह लोगी? तुम्हारे रिश्तेदार और आस पास के लोग क्या कहेंगे? तुम्हारे बेटे के लिए कोई क्या सोचेगा?’
पर वे ठान चुकी थीं। सभी रिश्तों से उनका मन सालों पहले भर चुका था और आज अपने बेटे-बहू से भी उनका मन अब भर गया है।
अम्मा बोलीं, ‘ किसे फुर्सत है यह सब सोचने की। कोई नहीं सोचेगा। वक्त-वक्त की बात है। वक्त बदला तो अपनों ने भी किनारा कर लिया। संतान भी बदल गई। जिस बेटे को पाल पोस कर बड़ा किया वह ही मुझे अब बोझ समझता है। पर यह सब छोड़ो। तुम तो मुझे वृद्धाश्रम का पता बताओ।’
नेट पर मुझे वृद्धाश्रम का एक वीडियो मिल गया था। मैं वीडियो देखने लगा। एक बड़े हॉल में बीस पच्चीस पलंग लगे हुए थे। साफ-सुथरी चद्दरें और तकिए। टीवी पर खबरें आ रही थीं।
पलंग पर बैठीं बुजुर्ग औरतें और पुरुष फ्रूट्स खा रहे थे। पर फ्रूट्स खाते हुए न तो उनकी आंखों में चमक थी और न ही चेहरे पर खुशी। मुख पर गहरी वेदना झलक रही थी। अपनों से अलग रहने का दुख उन सबके चहरो से साफ साफ दिखाई दे रहा था।
मैंने वह वीडियो अम्मा को दिखाया। हमउम्र दोस्तों की पीड़ा अम्मा की आंखों से आंसू बन कर बह चली थी। उनके मौन विलाप ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। अम्मा सिहर उठीं।
मुझे लगा, उन्हें दुखी देखकर शायद वे अपना विचार बदल लेंगी। पर मेरी धारणा के विपरीत बोलीं, ‘तुम मुझे इसी वृद्धाश्रम में पहुंचा दो। मैं अपना जीवन इस सभी के साथ बिता दुगी ‘
मैं हैरान था। अम्मा अपने इकलौते बेटे से कैसे दूर रह पाएंगी। वे भी इन लोगों की तरह उदास… अनमनी-सी कैसे रहेंगी।
‘घर चलो अम्मा, आप नहीं रह पाओगी वहां’, मैंने उनका हाथ खींचते हुए कहा।
‘मैं जानती हूं घर छोड़ना आसान नहीं होता। पर जब घर-घर नहीं रहे, पत्थर का मकान हो जाए तो मन उचटने लगता है। मैं यह वीडियो नहीं देखती तो शायद घर लौट चलती। लेकिन अब लौटना मेरी कायरता होगी। मैं अपने हमउम्र साथियों का दुख नहीं देख सकती। मैं उनके गम साझा करूंगी। उन्हें जीना सिखाऊंगी। मैं तन से बूढ़ी हूं, मन से नहीं। कमजोर नहीं हूं, उन्हें भी कमजोर नहीं पड़ने दूंगी। स्वाभिमान से जीना और आत्मनिर्भर बनना सिखाऊंगी। उनके दुख दूर करने की कोशिश करेगी। ‘ कहते हुए उनकी आंखों में एक पल को नमी आ गई थी।
फिर संभल कर बोलीं, ‘अपने आत्मसम्मान को गिरवी रख कर जीने से कही ज्यादा अच्छा है यहां रहना। तुम मुझे यहाँ पहुंचा दो।’
मैं खड़ा बस उनको देख रहा था। उनकी बूढी काया को देख रहा था और सोच रहा था की अम्मा कैसे अपना घर छोड़ कर वहा रहेगी। शायद वे मेरे भाव समझ गई थीं। बोलीं, मैं बुड्ढी जरूर हो गई हु, पर अभी आत्मबल शेष है। किसी भी सूरत में मेरा मन नहीं मरना चाहिए। में अपना आत्मसम्मान के बिना नही जी सकती। इसलिए मैने वृद्धाश्रम जाने का निर्णयलिया है।’
अब तक तो मैं घर लौटने के लिए अम्मा का हाथ खींच रहा थी, लेकिन अब वे मेरा हाथ खींचते हुए वृद्धाश्रम चलने की जिद कर रही थीं। मुझे उनका वहां जाना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। पर अम्मा की जिद के आगे हार गया था। न चाहते हुए भी में उनके साथ चल पड़ा था।
में ना चाहते हुए भी उनको वृद्धाश्रम छोड़ आया। अम्मा वहा अपना दुख दुसरो को बताती और दूसरों के दुखों को सुनती।वहाँ सभी की हिम्मत बढ़ाती। सभी अम्मा की बाते ध्यान से सुनते। लेकिन अम्मा अंदर से बहुत दुखी थी। अपने बेटे को याद करके रोया भी करती। उन्होंने कभी नही सोचा था कि जिस बेटे को पाल पोस कर बड़ा किया वह उनके एक बार भी वृद्धाश्रम से लेने नही आएगा।
अब अम्मा हमेशा हमेशा के लिए वृद्धाश्रम में चली गयी थी।उनके जाने के बाद मोहल्ला सुना सुना से लगने लगा था। मेरा मन करता उनसे मिलने का तो कभी कभी में उनसे मिलने वृद्धाश्रम चला जाता।