पंचतंत्र की कहानी। बच्चो की कहानी। Panchatantr Ki Kahaniya. Panchatantra stories in Hindi. Panchtantra ki kahaniyan for kids.
पंचतंत्र की कहानी – शेर और बैल
प्राचीनकाल के एक नगर में देवदास नाम का एक व्यापारी रहता था। उसने व्यापार से प्रचुर मात्रा में धन कमाया था, परन्तु उसमें और धन कमाने की लालसा थी। अधिक धन कमाने की लालसा के कारण उसने विदेश जाने का निश्चय किया।
उसकी पत्नी ने यह सुना तो बोली-“इतना धन रहते हुए धन के लिए परदेश के असहनीय कष्टों को भोगना कौन सी बुद्धिमानी है? यही जितना धन व्यापार से आ रहा है अपने परिवार के लिए पर्याप्त है।”
देवदास उसकी बात सुनकर मुस्कराया। उसने कहा-“आय न हो, तो बड़े से बड़ा भण्डार भी खाली हो जाता है। नदी में अगर वर्षा का जल आना बंद हो जाए तो नदी भी सूख जाती है। यहां व्यवसाय में अब लाभ नहीं है, इसीलिए विदेश जाना चाहता हूं। ”
पत्नी ने उदास होकर कहा-“जीवन में धन ही सबकुछ नहीं है। अपने प्रियजनों के स्नेह को, साथ को छोड़कर केवल धन के लिए परदेश-गमन उचित नहीं है।पूरी उम्र धन ही तो कमाया है। इस उम्र में आपको आराम भी करना चाहिए।”
देवदास उसकी बात सुनकर गम्भीर हो गया। उसने कहा- “मैं तुम्हें दुःखी करना नहीं चाहता, परन्तु यह एक कटु सत्य है कि धन के बिना प्रियजनों का स्नेह भी नहीं मिलता। निर्धन व्यक्ति को सगे–संबंधी भी अपमानित करते हैं। समाज में कोई उसका सम्मान नहीं करता। प्रत्येक प्रकार का गुण होते हुए भी पत्नी तक उसे त्याग देती है। इसके विपरीत धन हो, तो निष्कृष्ट आचरण का व्यक्ति भी पूजनीय हो जाता है। विद्वान, कलाकार, भाट और चारण भी उसमें ऐसे गुण देखने लगते हैं, जो नारायण में भी नहीं हैं। धनवान के लिए कोई वस्तु दुर्लभ नहीं होती। उसके लिए अगम्य भी गम्य और असम्भव भी सम्भव हो जाता है। अतः समाज में सम्मानित जीवन जीना चाहती हो, तो मुझे रोको मत!”
अपनी पत्नी को समझा-बुझाकर देवदास ने बैलगाड़ियों पर व्यवसाय की सामग्री लदवायीं और विदेश के लिए चल पड़ा। एक बैलगाड़ी में दो बैल जुते हुए थे, जिनके नाम दिवाकर एवं भास्कर थे। उन दोनों बैलों ने देवदास के ही घर जन्म लिया था और देवदास उनसे खेलता था, इसलिए वह उन दोनों से बहुत स्नेह करता था। देवदास के साथ अनेक गाड़ियां थीं, परन्तु वह स्वयं दिवाकर एवं भास्कर वाली गाड़ी पर ही बैठा हुआ था। दुर्भाग्यवश यमुना के कछार पर पहुंचकर देवदास की गाड़ी दलदल में फंस गयी। बैलों ने बहुत जोर लगाया, पर दिवाकर गहरे कीचड़ में जा फंसा था। वह थककर गिर गया। देवदास बहुत दुःखी हुआ। उसने उसे निकालने के लिए अनेक यत्न किये, तीन दिन तक वहां रुका भी रहा। अन्त में अनुचरों के कहने पर तथा वन में चोर-लुटरों के आक्रमण के भय से उसने दिवाकर को वहीं छोड़ दिया और बैलगाड़ियों के साथ विदेश की ओर प्रस्थान कर गया।
अपने प्राणप्रिय स्वामी की इस उपेक्षा के कारण दिवाकर अत्यन्त दुःखी हुआ। उसने मन में सोचा- “किसी ने ठीक ही कहा है, विपत्ति के समय अपनी छाया तक साथ छोड़ जाती है। जो स्वामी मुझे भोजन कराये बिना अन्न तक ग्रहण नहीं करता था, वह भी मुझे विपत्ति में देखकर मुंह फेर गया। इस संसार में उपयोगी वस्तु ही सबको प्रिय होती है। यही गति प्राणियों की भी है। उपयोग न रहने पर प्रिय से प्रिय भी त्याज्य हो जाता है। जब तक में स्वामी के काम का था तब तक में उनके लिए प्रिय था, जब में विपत्ति में पड़ा स्वामी ने मेरा साथ छोड़ दिया। ”
कुछ देर तक वह विलाप करता रहा, फिर यह सोचकर कि पुरुषार्थ ही विपत्ति से लड़ने का एकमात्र रास्ता है, दलदल से निकलने का प्रयत्न करने लगा। शुरू में सफलता नहीं मिली, परन्तु उसने प्रयत्न न छोड़ा। अन्ततः उसे सफलता मिल गयी। वह उस दलदल में से निकल गया । दलदल से निकलने के प्रयास के कारण वह बहुत थक गया था। उसे बहुत जोर को भूख लगने लगी।
यमुना के किनारे अत्यन्त कोमल हरी-हरी घास थी। दिवाकर जल में नहाकर उन घासों से क्षुधा पूर्ति में लग गया। प्राकृतिक हवा, उत्तम भोजन और स्वतंत्र विचरण के कारण दिवाकर कुछ ही दिनों में बलशाली सांड जैसा बलिष्ठ एवं उन्मत्त हो उठा। वह उमंग में आकर रम्भाता (बोलता/गरजता) था, तो उसकी गर्जना से जंगल गूंज उठता था। एक दिन उस वन का राजा संजीव नामक सिंह यमुना किनारे पानी पीने आया। तभी उसे दिवाकर की गर्जना सुनायी पड़ी। भय से उसके कान खड़े हो गए। ऐसी गर्जना उसने कभी नहीं सुनी थी। वह भयभीत होकर बिना पानी पिये वापस आ गया और अपने मंत्रियों, सैनिकों आदि को बुलाकर चतुर्मंडलीय व्यह में बैठ गया। (चतुर्मंडलीय व्यूह में चार गोलाकार वृत्त होते हैं।
पहले में राजा: दूसरे में मंत्री आदि विशिष्ट दरबारी; तीसरे में सैनिक, चौथे में राज-काज चलाने वाले, गुप्तचर, सेवक, भृत्य आदि होते हैं। (राज्य-व्यवस्था के स्तम्भ) ।)
संजीव के दरबार में रम्भा एवं मूसा नामक दो शृगाल (गीदड़) थे। रम्भा एवं मूसा दोनों मंत्रीपुत्र थे और स्वयं भी संजीव(सिंह) के मंत्री रह चुके थे। रम्भा एवं मूसा दोनो को भ्रष्टाचार और कुटिलता के आरोप में पदच्युत कर दिया गया था। इन्होंने अपने राजा को चिन्तित और भयभीत देखा, तो आपस में विचार करने लगे।
रम्भा ने कहा, “हमारा राजा किसी बात से भयभीत है।”
मूसा ने आश्चर्य से पूछा- “तुम्हे कैसे पता की हमारा राजा भयभीत है ?”
रम्भा ने कहा, “चेहरे का भाव, आंखों और हाव-भाव को ध्यान से देखने पर कोई भी किसी के मन का भाव जान सकता है। हमें राजा के भय का कारण ज्ञात करना चाहिए।”
मूसा ने कहा, “कहीं राजा हम पर क्रोधित न हो जाये। मैं तो कहता हूं, इस झमेले में पड़ो ही नहीं। राजा का छोड़ा हुआ भोजन तो हमें अब भी मिल जाता है, फिर व्यर्थ में मुसीबत मोल लेने से क्या लाभ?”
रम्भा ने कहा , “इस संसार में केवल भोजन-वस्त्र के लिए निष्कृष्टतम प्राणी जीते हैं। अधिकार, सम्मान और व्यक्तित्व के बिना जीना भी कोई जीना है ? तुम चिन्ता न करो। मैं नीति से राजा के भय का कारण ज्ञात करता हूं और प्रयत्न करता हूं कि हमें हमारा खोया हुआ अधिकार प्राप्त हो सके। अपनी स्थिति से संतोष करके या सम्भावित हानि के बारे में सोचकर पुरुषार्थ छोड़ देना बुद्धिमानी का काम नहीं है।”
मूसा को समझा-बुझाकर रम्भा राजा संजीव के पास पहुंचा। उसे द्वारपाल ने राजा संजीव के पास पहुंचा दिया। राजा संजीव ने उसके अभिवादन को स्वीकार करते हुए कहा, “बैठो, रम्भा। इतने दिनों तक कहां थे? बहुत दिनों के बाद दिखाई पड़े हो?”
रम्भा ने कहा, “श्रीमन्त ! मैं तो आपका सेवक हूं। मेरा कर्त्तव्य आपकी सेवा करना है; किन्तु जब सेवक की सेवा उपेक्षित हो जाती है, तब उसका मनोबल टूट जाता है। जब स्वामी दृष्टि फेर ले, तो सेवक का उसकी दृष्टि से दूर ही रहना उचित है। तथापि मुझे आपकी ही हित साधना की चिन्ता रही है। इस समय मैं आपसे कुछ आवश्यक बातें करने आया हूं। यदि आप मेरी बातें एकान्त में सुनें तो अच्छा है। नीतिज्ञों ने कहा है कि आपस की मंत्रणा चार कानों तक रहे, तभी तक प्रभावी रहती है। छः कानों में पड़ते ही वह सार्वजनिक हो जाती है और उसका महत्त्व कम हो जाता है।”
संजीव ने अपने सेवकों को संकेत किया, तो सभी वहां से हट गये। रम्भा ने कहा- “महाराज ! मुझे लगा कि आप किसी चिन्ता में हैं। कोई बात आपको परेशान कर रही है। यदि इस वक्त सेवक को योग्य समझें, तो अपनी चिन्ता का कारण बतायें। सेवक प्राण देकर भी उसे दूर करने का प्रयत्न करेगा।”
रम्भा की बातों से राजा संजीव लज्जित हो उठा। उसने मन में सोचा, ‘सचमुच मेरा आचरण वीरता से रिक्त रहा। यदि वन के प्राणी यह समझ गए कि मैं पुरुषार्थ और वीरता से रिक्त हो गया हूं, तो वे मेरा सम्मान नहीं करेंगे। यह राज्य भी जाता रहेगा; क्योंकि इस संसार में निर्बल, पुरुषार्थहीन और कायर , डरपोक को सभी प्रताड़ित करते हैं।’
उसने उदास मन से कहा- “रम्भा, वन में कोई बाहरी प्राणी आ गया है। मैंने अपने मंत्रियों से भी सलाह की है। मंत्रियों की माने तो वह प्राणी अत्यंत ही शक्तिशाली हैं। उन सभी की राय भी यही है कि उस भयंकर प्राणी से संघर्ष करने की अपेक्षा इस वन को छोड़ देना ही उचित है।”
राजा अपने भय को राजा छुपा नही सका। रम्भा समझ गया कि राजा अत्यन्त भयभीत है, और राजा अपने भय को प्रकट नही करना चाहता क्योंकि ऐसा करने से वन के अन्य जानवर राजा से डरना छोड़ देंगे।
उसने कहा- “महाराज ! आपके मंत्री अयोग्य हैं। जब स्वामी को योग्य एवं अयोग्य व्यक्तियों की पहचान नहीं रहती, तो उसके इर्द-गिर्द ऐसे ही सेवकों की जमात इकट्ठी हो जाती है। बिना संघर्ष किये अपने अधिकार को और बिना पुरुषार्थ किये अपनी सफलता को त्याग देने वाला प्राणी कायर कहा जाता है। उसे तीनों लोकों में निन्दा एवं अपमान का सामना करना पड़ता है।”
राजा संजीव रम्भा की बातों से अत्यधिक प्रभावित हुआ; किन्तु समर्थ व्यक्ति कभी अपने अनुयायियों को स्वयं से अधिक बुद्धिमान स्वीकार नहीं करते। राजा ने अपनी सफाई दी-“वन के अन्य प्राणियों की भी राय नहीं है। वे भी वन को छोड़ देने में ही सबका भला समझते हैं।”
रम्भा ने कहा-“महाराज ! यह उनका दोष नहीं है। सामान्यजन वही आचरण करते हैं; जो श्रेष्ठजन करते हैं। जिस राज्य का राजा ही अधिकार छोड़कर पलायन करने की सोचने लगे और जहां के मंत्रीगण कायरता भरी बातें करने लगें, वहां की प्रजा से किसी वीरता या पुरुषार्थ की आशा कैसे की जा सकती है ? मेरी राय तो यह है कि उस प्राणी का पता लगाना चाहिए।
उसकी शक्ति एवं जंगल में उसके आने के उद्देश्य की जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। इसके पश्चात् ही कोई निर्णय लेना उचित होगा। यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं उसके बारे में पता लगाने की कोशिश करूं?”
राजा ने प्रसन्न होकर कहा-“तुम ऐसा कर सकते हो, तो करो । यह मत समझना कि तुम पदच्युत हो । मेरा स्नेह तुम पर विद्यमान है। ”
रम्भा ने उठते हुए कहा- “महाराज ,भले ही मैं मंत्री न रहा, परन्तु आपके राज्य का नागरिक तो हूं ही। अपने देश का कल्याण भाव मुझमें सदा विद्यमान रहेगा। आपका स्नेह अब भी मुझ पर है, यह जानकर सेवक धन्य हो गया। अब आप मुझे आज्ञा दीजिए, जिससे मैं अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकूं। और उस प्राणी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी जुटा सकु। ”
वह राजा से आज्ञा लेकर जंगल मे नदी के कछार की ओर चल पड़ा। नदी की कछार पर पहुंचकर रम्भा झाड़ियों में छुपकर गर्जना करने वाले प्राणी को ढूंढने लगा। कुछ देर प्रतिक्षा करने का बाद उसने दिवाकर को देख लिया।
बैल जंगल के प्राणियों के लिए अपरिचित था क्योंकि जंगल के प्राणियों ने पहले कभी बैल नही देखा था, परन्तु रम्भा कई बार रात में गांव की सैर करता रहा था। उसने दिवाकर को देखते ही पहचान लिया कि वह एक बैल है। वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-‘इस घास-फूस खाने वाले अहिंसक प्राणी से संजीव भयभीत हो उठा है। इसे तो आसानी से वश में किया जा सकता है। किन्तु, मेरे लिए तो यही अच्छा है कि संजीव इससे डरा रहे। राजा जब तक आपत्ति में रहता है, तभी तक उपयोगी सेवकों को महत्त्व देता है। यदि सिंह को यह ज्ञात हो गया कि यह अहिंसक है; तो मेरे कार्य का महत्त्व ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए राजा को बैल की वास्तविकता पता नही चलना चाहिए। राजा बैल से डरता रहे वही मेरे हित में है।’
रम्भा उल्टे पांव लौट गया। उसने मन में संकल्प कर लिया कि दिवाकर और संजीव में मित्रता करवाकर पुनः शत्रुता करवायेगा और सन्धिविग्रह की नीति से लाभ उठायेगा। रम्भा संजीव के पास जाता है।
संजीव ने रम्भा को देखकर उत्सुकता से पूछा- “क्या कुछ पता चला उस प्राणी के बारे में?”
“महाराज ! मैंने उसे देख भी लिया है और उससे उसका परिचय भी लिया है ताकि उसके बारे में जानकारी प्राप्त हो सके।” ,रम्भा ने बैठते हुए स्वाभिमान से कहा।
“क्या सचमुच ?”, संजीव चमत्कृत हो उठा। उसने विस्मय से पूछा- “क्या तुम सच कह रहे हो ?”
रम्भा ने कहा, “मैं आपसे असत्य बात कैसे कर सकता हूं ? आप राजा हैं। राजा से झूठ बोलकर क्या मुझे दंड का भागीदार बनना है ? वह भगवान शंकर का सेवक एक अत्यन्त बलशाली जीव है। ”
संजीव का रहा-सहा साहस भी भगवान शंकर का नाम सुनकर जाता रहा। उसने गहरा निःश्वास लेकर कहा-“अवश्य ही होगा। उसकी गर्जना सुनकर ही मैं समझ गया था कि वह कोई ऐसा प्राणी है, जो महाकाल बनकर इस वन में आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे भाग्य का सूर्य अब डूब चुका है। मुझे अपना राज्य और अधिकार छोड़कर दर-दर भटकना होगा। वह प्राणी इस वन में अधिकार कर लेगा। ”
“परन्तु, आश्चर्य यह है कि इस भयंकर प्राणी ने तुम्हे किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचायी ?” शेर ने अपनी शंका प्रकट की।
रम्भा ने कहा,” नही महाराज, मेने बड़े ही चालाकी से उसके बारे ने सब जानकारी हासिल की है।”
संजीव ने व्यंग भाव से कहा- “निर्बल एवं दीन प्राणियों पर समर्थ क्रोध नहीं करते। महाशक्तिवान भी अपनी वायु शक्ति का प्रयोग बड़े-बड़े विशाल वृक्षों पर ही करती है, घास-फूस पर नहीं। उसने तुम्हे दीन-हीन समझकर नहीं मारा होगा।”
रम्भा मन ही मन हंसा, पर प्रकट में गम्भीर होकर बोला, “दीन-हीन तो मैं हूं ही, परन्तु मुझ में बुद्धि भी है। बुद्धि से बड़े-बड़े पराक्रमियों को भी वश में किया जा सकता है। यदि महाराज आज्ञा दें, तो मैं इस भयंकर जीव को आपके एक आज्ञाकारी भृत्य के रूप में प्रस्तुत कर सकता हूं।”
“क्या सचमुच ?”संजीव चमक उठा। उसने अविश्वास भरी दृष्टि से रम्भा को देखा- “क्या तुम ऐसा कर सकते हो ? यदि तुमने ऐसा कर दिया, मैं वचन देता हूं कि उसी समय तुम्हें मंत्रीमंडल में ले लिया जाएगा। तुम सभी मंत्रियों में श्रेष्ठ माने जाआगे। मेरे निजी सलाहकार भी तुम ही रहोगे। तुम्हे सभी मंत्रियों से अधिक सम्मान भी दिया जायेगा।”
रम्भा प्रसन्नता से झूम उठा, किन्तु उसने अपनी प्रसन्नता प्रकट नहीं की। उसने विनम्र स्वर में कहा-“यह महाराज की मुझ पर अनुकम्पा है। वैसे मैंने किसी पद के लोभ में यह कार्य करने की नहीं ठानी है। एक सेवक का कर्त्तव्य समझकर ही मैंने इस कार्य में हाथ डाला है।” वह संजीव से अनुमति लेकर दिवाकर से मिलने नदी की ओर चल पड़ा।
दिवाकर उस समय तृप्त होकर भोजन कर चुका था और गर्दन उठा कर जोर-जोर से गर्जना कर रहा था। रम्भा ने उसके पास जाकर कहा- “अरे दुष्ट बैल! तूने अपने कर्कश स्वर से इस जंगल की शान्ति भंग कर दी है। महाराज संजीव तुम पर अत्यन्त कुपित हैं। चल ! वे तुझे बुला रहे हैं।”
दिवाकर ने विस्मय से पूछा- “यह संजीव कौन है ?”
“अरे! तुम इस वन-प्रदेश के राजा को भी नहीं जानते ? अच्छा शीघ्र ही जान जाआगे। जब तुम्हें अपनी दुष्टता का फल मिलेगा, तो इस जंगल के महाबलशाली राजा सिंह संजीव को अच्छी तरह जान जाआगे। वह यहीं समीप में बैठा हुआ है। उसी ने मुझे तुमको पकड़ लाने के लिए भेजा है ताकि तुम्हारी दुष्टता का दंड दे सके। ”
दिवाकर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। अपने प्राणों का अन्त जानकर वह अत्यन्त खिन्न हो उठा। उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा-“भद्र ! मुझसे जो भी गलती हुई है वह अनजाने में हुई है। आप तो अत्यन्त उदार एवं सज्जन पुरुष हैं। क्या आप मुझे अपने राजा से अभयदान नहीं दिलवा सकते ? ”
रम्भा ने गम्भीर होकर कहा- “तुमने मुझे कठिनाई में डाल दिया है। राजा से अभयदान दिलवाना कोई सरल कार्य नहीं है। राजा के मनोभावों का कुछ पता नहीं चलता कि किस क्षण कैसा रहेगा, तथापि तुम सज्जन जीव लगते हो। तुम्हारी सहायता तो करनी ही होगी । ठीक है, तुम मेरे साथ चलो। तुम्हारी सुरक्षा का उत्तरदायित्व मेरा है।”
रम्भा उसे लेकर संजीव की ओर चल पड़ा। उसे कुछ दूर एक ओट में छोड़कर बोला- “तुम यहीं रहो। तुम यह सुरक्षित हो। में महाराज से मिलने जा रहा हु। मैं महाराज के क्रोध को शान्त करने का प्रयत्न करूंगा ।”
वह संजीव के समीप आकर बोला- “महाराज ! वह प्राणी कहता है कि भगवान शंकर ने उसे वन में विचरने का अधिकार दिया है। वह कहता है कि- ‘मैं तुम्हारे राजा को नहीं जानता।’ तब मैंने आपका परिचय देकर कहा कि हमारे महाराज देवी चण्डी के भक्त हैं और अपार बलशाली हैं। उन्होंने कहा है कि आप उनके अतिथि और भाई हैं। आप उनके पास चलकर उनका आतिथ्य ग्रहण करें।”
“फिर, उस प्राणी ने क्या कहा ?” , संजीव ने व्याकुलता से पूछा।
रम्भा ने कहा “महाराज उसने कहा कि उसे आपका आतिथ्य उसे स्वीकार है, परन्तु अभयदान देना होगा; क्योंकि राजाओं के मनोभाव का कोई ठिकाना नहीं होता। आज किसी को भाई बना लूं और कल को युद्ध करना पड़े, तो इससे धर्म की हानि होती है।”
संजीव ने कहा, “तुम्हारी बातों से वह एक धार्मिक प्राणी प्रतीत होता है। क्यों न हो ? जिसके स्वामी शिव हों, वह तो धार्मिक होगा ही। मैं अपनी ओर से अभयदान देता हूं। आप उससे भी मेरे लिए अभयदान लेने का प्रयत्न कीजिए फिर सादर यहां ले आइये।”
रम्भा ने कहा ,” जी महाराज, में उस प्राणी के पास जाकर इस पर चर्चा करता हु। ”
रम्भा पुनः दिवाकर के समीप गया। उसने कहा- “मित्र ! बड़ी
कठिनाई से मैं महाराज के क्रोध को शान्त करके आपके लिए अभयदान प्राप्त कर पाया हूं। वे आपसे भातृत्व स्नेह करेंगे और अपना अतिथि समझ कर आपका सम्मान करेंगे। किन्तु, एक बात स्मरण रखियेगा। राजा का स्नेहपात्र बन जाने के बाद अपने इस मित्र को न भूल जाइयेगा। मैं भी प्रतिज्ञा करता हूं कि आपके ही परामर्श से मैं मंत्री पद पर रहकर राजकार्य करूंगा।”
दिवाकर, जो भयभीत था, इस समाचार को पाकर गद्गद् हो गया। उसने भावविह्वल होकर कहा-“मैं कृतघ्न नहीं हूं। आपने मेरी प्राणरक्षा की है। में आपका अहसान हमेशा याद रखूंगा। मैं आपका अहित कभी नहीं होने दूंगा, चाहे मुझे अपने प्राणों का उत्सर्ग क्यों न करना पड़े।”
रम्भा दिवाकर को संजीव के पास ले गया। संजीव ने बड़े आदर और प्रेम से दिवाकर का स्वागत किया। दिवाकर भी संजीव के स्नेह से प्रभावित होकर अपने इस जंगल में आने का कारण बताया।
संजीव ने उससे कहा- “मित्र ! अब तुम मेरे अतिथि ही नहीं, भाई भी हो। तुम इस जंगल में निर्भय होकर विचरण करो, परन्तु सदा मेरे समीप बने रहना। तुम एक सज्जन प्राणी हो । सज्जनों की संगति अत्यन्त भाग्यवानों को ही प्राप्त होती है। मैं भी तुम्हारी संगति का लाभ उठाना चाहता हूं।”
सिंह ने सभी वन्य-जीवों से दिवाकर का परिचय कराया। वह आनन्दपूर्वक संजीव के साथ ही रहने लगा।
रम्भा को प्रधानमंत्री पद प्राप्त हो गया, तो उसने अपने भाई मूसा को भी मंत्री बना दिया।
मूसा ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा-“तुम सचमुच नीतिशास्त्र के पण्डित हो। तुमने बड़ी कुशलता से अपना खोया हुआ अधिकार और सम्मान प्राप्त किया है।”
रम्भा यह सुनकर कुटिलता से हंसा । उसने मुस्कराकर कहा- “यह तो मेरी कूटनीति का प्रथम चरण है। जो कुछ भी कहना, वह पूरा खेल देखने के बाद कहना। राजनीति में जो कुछ दिखायी पड़ता है, वह सत्य नहीं होता। जिस कूटनीतिज्ञ की नीति को सभी समझ जायें वह कूटनीतिज्ञ कैसे हुआ ?”
मूसा ने आश्चर्य से पूछा- “अब क्या करने की सोच रहे हो?हमे अपना खोया हुआ सम्मान प्राप्त तो हो गया गया। अब और क्या चाहिए?”
रम्भा बोला-“अधिकार प्राप्त कर लेने के बाद उसे स्थायी बनाना भी आवश्यक होता है। मैं अब वही प्रयत्न करने वाला हूं।”
मूसा की समझ में कुछ नहीं आया, परन्तु रम्भा अपने को अधिक बुद्धिमान सिद्ध कर चुका था, इसलिए वह चुप ही रहा।
उधर संजीव एवं दिवाकर की घनिष्ठता बढ़ती ही चली गयी। देवदास के घर विद्वानों की जमघट होती थी। दिवाकर को धर्म के सार का ज्ञान था । उसने संजीव को ज्ञान और धर्म का ऐसा उपदेश दिया कि वह सांसारिकता और राज-काज से विमुख होकर प्रत्येक समय ज्ञान प्राप्ति में ही निमग्न रहने लगा। इससे उसने पुरुषार्थ भी त्याग दिया। फल यह हुआ कि सेना निष्क्रिय हो गयी, मंत्रीगण भी मनमानी करने लगे। जो प्राणी राजा पर ही आश्रित थे, वे भूखे मरने लगे। सैनिक वन्य प्राणियों का संहार करके क्षुधा-पूर्ति करने लगे।
यह सब देखकर मूसा अत्यन्त दुःखी हुआ। उसने रम्भा से कहा- “भाई ! तुमने इस सन्यासी को राजा से मिलवाकर अच्छा नहीं किया। ज्ञान से परलोक सुधरता है, यश और सम्मान भी प्राप्त होता है; परन्तु इससे धन या भौतिक क्षुधा तृप्त नहीं होती। इसके लिए पुरुषार्थ आवश्यक है और यह प्राणी राजा को पुरुषार्थ-हीन बना रहा है। राज्य में अव्यवस्था, लूटपाट, हिंसा, बलात्कार की घटनाएं घट रही हैं। कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। लड़ने का अभ्यास छूट गया, तो हमारे सैनिक युद्धभूमि से भाग खड़े होंगे। ऐसे में कोई आक्रमण हो गया, तो ?”
रम्भा ने कहा, “तुम ठीक कहते हो। मैंने अपने विनाश का कारण स्वयं उत्पन्न किया है; परन्तु अब क्या किया जाना चाहिये ?”
मूसा ने कहा, “उचित तो यही है कि उस वृषभ और राजा को वस्तु-स्थिति का ज्ञान करा दिया जाये। इससे वह चेतेगा।”
रम्भा ने कहा ,“राजा के मस्तिष्क को नियंत्रित करना इतना सरल नहीं होता। मुझे पुनः अपनी नीति का प्रयोग करना होगा।”
“क्या करोगे ?” मूसा ने उत्सुकता से पूछा ।
“तुम देखना कि मैं क्या करता हूं।” यह कहकर रम्भा संजीव की राज-सभा की ओर प्रस्थान कर गया।
रम्भा ने राजा संजीव से एकान्त में भेंट की। उससे घबराये स्वर में कहा- “महाराज ! एक अत्यन्त भयंकर सूचना है। प्राणों का दान मिले तो कहूं।”
“कहो रम्भा ! तुम मेरे प्रिय मंत्री और सलाहकार हो। तुमने मुझे दिवाकर जैसा मित्र प्रदान किया है। तुम्हारी कोई भी बात मुझे अप्रिय नहीं लगेगी।” संजीव ने स्नेह से कहा ।
रम्भा ने गम्भीर होकर कहा“महाराज ! दीवाकर के बारे में ही कुछ कहना चाहता हूं। वह आपसे द्रोह भाव रखता है। आपकी हत्या करके राज्य पर अधिकार करना चाहता है। इस कार्य में वह मेरी सहायता भी चाहता था, क्योंकि वह मुझे अपना मित्र मानता है। मैं आपका प्रधानमंत्री हूं, इसलिए यह सूचना देने आपके पास आ गया।”
इस वज्र जैसे आघात से संजीव मूर्छित होकर गिर पड़ा। रम्भा ने उसे शय्या पर डलवाकर शीतल जल के छींटे दिये। उसके होश में आते ही उसने पूछा-“महाराज ! आप स्वस्थ तो हैं ?”
संजीव की आंखों में आंसू भर आये। उसने गहरी सांस लेकर कहा- “मुझे प्राणों का भय नहीं। इस राज्य की भी चिन्ता नहीं है परन्तु जिस प्राणी पर मैंने स्वयं से भी अधिक विश्वास किया, उसके सम्बन्ध में ऐसी कल्पना भी कि वह मेरे अहित की सोचता है, मुझे हजारों नर्क की यातना में डाल रही है। आह मित्र ! तूने यह क्या किया ? तुझे राज्य चाहिये था, तो मुझे कहता। मैं स्वयं तुम्हारे लिऐ सिंहासन छोड़ देता। यह विश्वासघात किसलिए ? मेने इतना विश्वास किया उसके बदले में विश्वासघात क्यों?”
रम्भा ने संजीव की यह दशा देखी, तो प्रसन्न हो उठा, किन्तु प्रसन्नता को छुपाकर गम्भीर स्वर में बोला-“महाराज ! यह समय शोक करने का नहीं है। ईश्वर का धन्यवाद है कि आपको समय रहते इस विश्वासघात की सूचना प्राप्त हो गई। आपको दिवाकर के आचरण पर दुःख भी नहीं होना चाहिए। राज्य, अधिकार और धन के लिए तो भाई-भाई की पीठ में छुरा मार देता है। वह तो केवल मित्र है। राज्य के लिए तो कोई भी विश्वासघात कर सकता है।”
“परन्तु सच्चा मित्र भाई से बढ़कर हितैषी होता है। मैं कैसे मान लूं कि मेरा मित्र ही मेरे प्राणों का शत्रु बन बैठा है ? बुद्धि तुम्हारी सूचना को सत्य मानती है, परन्तु मेरा हृदय इस सत्यरूपी गरल को ग्रहण नहीं करता।” संजीव ने हतास भरे स्वर में कहा।
“मित्र सच्चा है या झूठा यह तो समय एवं परिस्थितियां ही बताती हैं। जब तक सोने को कसौटी पर घिसा नहीं जाता, उसकी चमक से उसके मूल्य का ज्ञान नहीं होता। मीठी वाणी, सात्विक वेश-भूषा किसी की सज्जनता का चिन्ह नहीं है। महाराज ! मैं आपको सावधान करने आया था, सो कर चुका। अब आप मुझे आज्ञा दीजिए।” रम्भा ने कहा।
रम्भा संजीव को शोकविहल छोड़कर राजमहल से निकला और सीधे दिवाकर के पास पहुंच गया। उसने घबड़ाये स्वर में कहा- “मित्र ! न जाने क्यों राजा तुम पर कुपित हो गया है। राजा तुमसे ईर्ष्या रखते है। वह तुम्हें मार डालना चाहता है। तुम एक सज्जन जीव हो। तुमने मुझे मित्र मानकर मुझ पर विश्वास भी किया है, इसलिए मेरा कर्त्तव्य है कि मैं तुम्हें सावधान कर दूं।”
दिवाकर भी यह सुनते ही मूर्छित हो गया। उसके हृदय पर गहरा आघात लगा था। जब उसकी चेतना लौटी, तो वह मार्मिक भाव में विलाप करने लगा, फिर उसने रम्भा से पूछा- “मेरा दोष क्या है ? मैंने तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ा ? सदा उसका कल्याण ही चाहा है ? मेने कभी राजा का अहित नहीं सोचा। राजा क्यों मुझे मारने की सोच रखने लगे।”
“मित्र !” रम्भा ने कहा-“तुम बहुत भोले हो । भला राजा भी किसी का मित्र हुआ है ? समर्थ और शक्तिशाली लोग स्वयं से हीन और दुर्बल लोगों को मित्र नहीं समझते। यह सारा उनका पाखंड होता है। राजा ने तुम्हें मित्र इसलिए बनाया था कि वह तुम्हें शक्तिशाली समझता था। इतने दिनों तक साथ रहते हुए वह तुम्हारे बलाबल का मूल्यांकन कर चुका है। अब वह तुम्हें मारकर निष्कंटक राज्य करना चाहता है, क्योंकि वह समझता है कि तुम कभी भी उसका राज्य हड़प सकते हो ।”
“ओह !” दिवाकर ने क्षुब्ध भाव में कहा-“किसी ने सच ही कहा है कि दुष्ट और हिंसकों की संगति नहीं करनी चाहिए। नीच और कपटी स्वयं के अनुसार ही दूसरों के बारे में भी सोचते हैं। भला मुझे राज्य से क्या मतलब ? आह ! शास्त्रों में ठीक ही कहा गया है कि जाति स्वभाव कभी नहीं बदलता। नीम के फल को कितना भी गुड़ एवं घी में पकाया जाये उसका कड़वापन दूर नहीं होता। मैंने इस हिंसक सिंह को मित्र बनाकर ज्ञान देकर यह समझा कि यह अहिंसक हो गया है, किन्तु उसकी जातीय प्रवृत्ति ज्यों की त्यों ही रही।”
रम्भा दिवाकर को विलाप करता छोड़कर चला गया। दिवाकर ने सोचा कि-‘प्राण बचाने के लिए उसे भाग जाना चाहिए, फिर यह सोचने लगा कि भागकर जायेगा कहां? दुनिया में उसका है ही कौन? वह भी विधाता द्वारा रचित एक जीव है। इस धरती पर जीवित रहने का अधिकार उसका भी है। यद्यपि सिंह अत्यधिक शक्तिशाली है, तथापि जीवन रक्षा के लिए संघर्ष करना उसका कर्त्तव्य है। भले ही वह इस युद्ध में मारा जाये, परन्तु उसे कोई कायर तो नहीं कहेगा ?’
दिवाकर ने अगली सुबह स्वयं राजा से मिलने के लिए राज्यसभा जाने का निश्चय किया। अगले दिन राज्य सभा में दिवाकर के आने पर संजीव ने क्रुद्ध होकर दहाड़ लगायी। दिवाकर ने राजा की दहाड़ में युद्ध की चेतावनी को समझ लिया था। दिवाकर उसकी दहाड़ सुनकर जोर से गरजा और लाल-लाल नेत्रों से उसे देखने लगा। संजीव को विश्वास हो गया कि वह उसे मार डालना चाहता है। उसने दिवाकर पर आक्रमण कर दिया। दिवाकर भी अपने भयानक सिंगों से उस पर वार करने लगा। दोनों में भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया। अचानक दो प्राणप्रिय मित्रों को लड़ते देखकर मूसा एवं अन्य जीवन हत्प्रभ हो गए। मूसा ने रम्भा की ओर देखा। उसके चेहरे पर लक्ष्य प्राप्ति की चमक देखकर वह समझ गया कि इस युद्ध का कारण वही है। क्रोध और घृणा से उसका चेहरा तमतमा आया। उसने कहा-“अरे नीच ! तूने यह क्या किया ? तूने दो प्रियजानों को एक-दूसरे के प्राणों का शत्रु बना दिया ? संसार में सभी पापों का प्रायश्चित है, किन्तु ऐसा नीच कर्म तो चांडाल भी नहीं करते। मुझे तुझे भाई कहते हुए भी शर्म आती है।”
रम्भा ने कुटिलता से हंसते हुए कहा-“भैया! तुम व्यर्थ ही कुपित हो रहे हो। राजनीतिज्ञ यह कभी नहीं देखता कि उसकी लक्ष्यप्राप्ति के मध्य कितने प्रिय व्यक्ति आपस में लड़ पड़े या कितनों को अपने प्राणों की आहूति देनी पड़ी। तुम देखते नहीं ? एक राजा अपनी शक्ति एवं अधिकार की प्राप्ति के लिए दूसरे के क्षेत्रों पर आक्रमण करता है और लाखों सैनिकों को मरवा डालता है। यदि उस समय वह नैतिकता और मानवता के बारे में सोचने लगे, तो वह यश एवं अधिकार की वृद्धि कैसे करेगा ?”
तब तक दिवाकर ने सिंह को और सिंह ने दिवाकर को बुरी तरह घायल कर दिया था। दोनों विक्षिप्तों की तरह लड़ रहे थे। मूसा ने क्षुब्ध स्वर में कहा-“मूर्ख, नीच, कपटी ! तू अपने को कूटनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ समझता है ? अरे ! जिसे धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं, वह तो राजा, प्रजा, राज्य कर्मचारी और स्वयं अपना भी शत्रु होता है। ऐसा नीच केवल अपनी नीचता का प्रदर्शन कर सकता है।”
रम्भा ने कहा, “भैया ! राजनीति में इन बातों का कोई महत्त्व नहीं है। राज्य के लिए पिता-पुत्र की, भाई-भाई की, पुत्र-पिता की और नारी अपने पति, पुत्र एवं भाई तक की हत्या कर डालती है। राज्यसत्ता का मार्ग ही रिश्तों, नातों, नैतिकता, आदर्श और धर्म की लाशों से निर्मित होता है। इतिहास इसका गवाह है।”
मूसा ने कहा, “न जाने तू किन पापियों की बातें कर रहा है। राज्यकुलों में राज्य-सिंहासन को त्यागकर मानवता के कल्याण के लिए दर-दर भटकने वाले महामानवों का उदाहरण क्यों नहीं देता, मूर्ख ? रिश्तों की भावनाओं के कारण सत्ता को ठोकर मारनेवालों, राज्य प्राप्त करके भी स्वयं को जनता का सेवक समझनेवालों पर तेरी दृष्टि क्या नहीं गई ? मैं बताता हूं। तेरी दृष्टि उन पर इसलिए नहीं गयी क्योंकि तू नीच है। केवल पद प्राप्त करने से कोई बड़ा नहीं होता। गिद्ध आकाश में बहुत ऊंचा उड़ता है, परन्तु उसकी दृष्टि में लाशों के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता।”
रम्भा हंसा । उसने कहा- “आप मेरे बड़े भाई हैं। मैं आपके कटुवचनो का बुरा नहीं मानूंगा।”
मूसा के कहा, “भाई ? कैसा भाई ? तू किसी का भाई या मित्र नहीं हो सकता। जिसमें अज्ञानता, लोभ, अहंकार और कुटिलता हो, वह किसी का सगा नहीं होता। मैं इस मूर्ख राजा, और तेरे जैसे नीच व्यक्ति के साये से भी दूर चला जाना चाहता हूं। मैं जा रहा हूं भविष्य में कभी अपनी सूरत मुझे न दिखाना। वर्ना मैं यह भूलकर कि तू मेरा भाई है, तुझे मार डालूंगा।”
मूसा चला गया। रम्भा ने उसे रोका नहीं। दिवाकर को संजीव ने मार डाला और बुरी तरह घायल होकर भी अपने उस परमप्रिय मित्र के लिए विलाप कर रहा था। रम्भा ने उसके समीप जाकर कहा-“महाराज ! जिसके भाग्य में जो लिखा होता है, वही होता है। आप राजा हैं। एक क्षुद्र जीव के लिए आपका विलाप करना उचित नहीं।”
सिंह का अहंकार जाग्रत हो उठा। उसे अपने अहंकार के सामने दिवाकर की मित्रता और मृत्यु बौनी लगने लगी। उसने एक जोर की गर्जना की और रम्भा के साथ विश्राम करने के लिए चला गया।
शिक्षा- मित्र एवं शुभचिन्तकों की पहचान किये बिना उस पर विश्वास करना प्राणलेवा होता है, विशेषकर तब, जब वह राजनीतिज्ञ भी हो ।