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सामाजिक कहानी- दौलत का नशा।
रविवार का दिन था। मैं मंत्री जी से मिलकर उन्हें अपनी प्रोजेक्ट की रिपोर्ट देने गया था जो उन्होंने मांगी थी। वहाँ से लौटते वक्त जूस की दुकान में जूस पीने रुक गया। अचानक मैंने देखा एक गरीब सा युवक पुराने से कपड़ो में एक खटारा साइकिल लिए वहां खड़ा था। साइकिल के पीछे कैरियर पर एक लकड़ी का बक्सा रस्सी से बंधा था। युवक का चेहरा मैंने गौर से देखा।
मैं सामने खड़ी अपनी लक्जरी गाड़ी तक पहुंचा ही था कि मेरे दिमाग में कुछ झटका सा लगा और मुझे कुछ याद आया। ये तो रोशन है। मेरे बचपन का दोस्त। मैंने आवाज लगाई, रोशन…’
रोशन ने हैरानी से इधर-उधर देखा। तब तक मैं उसके पास पहुंच चुका था। मैंने उससे कहा, ‘मुझे पहचाना रोशन? तेरे बचपन का वाला दोस्त, मैं मनीष! ‘
उसकी आंखों में एक चमक उभर आई मगर आर्थिक स्थिति का अंतर उसे सहज होने नहीं दे रहा था। मैं उसकी खटारा साइकिल को देखे जा रहा था।
‘कैसे हो रोशन?” मैंने अपनी लक्जरी गाड़ी की चाबी को अंगुली पर घुमाते हुए गर्व से पूछा।
‘मैं ठीक हूं। लगता है तुम बहुत बड़े आदमी बन गए हो? रोशन ने पूछा।
मैनें रौब झाड़ते हुए कहा, ‘हां, मैं सरकारी विभाग में चीफ इंजीनियर हूं। तुम आजकल क्या करते हो , कहा रहते हो और ये साइकिल पर बक्से में क्या है? ”
उसने आत्मविश्वास भरे स्वर में कहा, ‘कैसा इत्तिफाक है। तू भी इंजीनियर और मैं भी एक छोटा- मोटा इंजीनियर ही हूं। घरों में बिजली, पानी, कुकर, सिलाई मशीन, फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन, मिक्सी आदि सभी उपकरण ठीक करता हूं। इस बक्से में मेरे औजार हैं। शहर में फेरी लगाता हूं। इससे गुजारे लायक खर्चा चल जाता है। यही पास में खुद का एक छोटा सा मकान है।’
अपने धंधे की मुझ जैसे काबिल इंजीनियर से तुलना मुझे अखर गई। मेरे अहम को ठेस लगी। मैंने उसे नीचा दिखाने की गरज से कहा, ‘मैने इसी शहर की पॉश कॉलोनी में एक शानदार कोठी बनवा ली है। ये गाड़ी अभी नई खरीदी है 75 लाख में। भगवान की दया से किसी चीज की कमी नहीं है।’
ये कहकर मैंने एक गर्व भरी नजर उस पर डाली और बोला, ‘अच्छा बैंक बैलेंस है, जमीन जायदाद में भी कही इन्वेस्ट कर रखा है।’ यह कह कर में उसकी तरफ देखने लगा। मगर उसके चहरे पर कोई फर्क ही नहीं पड़ा। आखिर मैंने उसको अपनी हैसियत बताने के लिए एक दाव सोच और उसको कहा ‘यार रोशन, यही पास में मेरा मकान है। खाने का टाइम भी हो गया चल मेरे घर, वहीं खाना खाते हैं। खाने के बाद तुम्हें वापस यहीं छोड़ दूंगा।’
कुछ देर ना नु करने के बाद वह मान गया।
‘पर यार मेरी साइकिल..उसका क्या करें?’
‘यह जूस वाला मुझे जानता है, उसके यहां तेरी साइकिल रख लेना। तुम चिंता मत करो।’ मैंने कहा।
रोशन को मैंने गाड़ी में अपनी बगल की सीट पर बिठाया और घर की ओर चला। घर पहुच कर मेने घर के सामने बने पार्किंग में गाड़ी पार्क कर दी और रॉब दिखाने के लिए कार की चाबी को हाथ की उंगलियों में फिराने लगा। मेरी पूरी कोशिश थी कि अपने पैसों का रौब उसको दिखा सकूं।
मैं बार-बार उसके चेहरे को देख रहा था पर उसका चेहरा एकदम भावहीन था। मेरे अमीर होने का कोई प्रभाव उस पर नहीं पड़ा। इस कारण उसे नीचा दिखाने की जिद और ज्यादा जोर मारने लगी। कार से बाहर निकल मैंने उसे अपना लंबा चौड़ा गार्डन और प्लांट दिखाए तो रोशन भौचक्का होकर मेरी कोठी की ओर निहारने लगा। मैंने मन में सोचा अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। रोशन के चकित होने से मेरे अहम की संतुष्टि हुई।
‘अंदर चलोगे या यहीं खड़े रहने का इरादा है?’ मैंने मन ही मन प्रसन्न होते हुए उससे कहा। घर के बाहर लगी बेल बजाई तो श्रीमतीजी ने दरवाजा खोला। मेरे साथ एक गरीब व्यक्ति को देख उसने नाक भौंह सिकोड़ी और चकित रह गई। वो बोली तो कुछ नहीं पर चुपचाप अंदर चली गई। अपने आलीशान हाल में रोशन को सोफे पर बिठाकर मैं अंदर चला गया।
मेरे अंदर जाने पर पत्नी ने मेरी तरफ गुस्से से देखा और कहा, ‘ये किस भीखमंगे को उठा लाए हो?’
‘मेरे बचपन का दोस्त है। मै जूस पीने गया तो वही मिल गया था। मे इसको खाना खिलाने घर ले आया।’ मैंने कहा।
‘क्या, खाना? क्या मेरे पास कोई जादू की छड़ी है जिसको झुमाया ओर खाना हाजिर !
धीरे बोलो, वो कमरे में बैठा है। वह सब सुन लेगा। अच्छा नही लगेगा।’ मैंने कहा।
‘किसी को लाना ही था तो फोन नहीं कर सकते थे क्या?अब कहा से खिलाऊं खाना इसे।’ श्रीमतीजी में फ़िर गुस्से से कहा।
‘मैं खाना होटल से कुछ ले आता हूं। जब तक वह हाल में बैठा रहेगा ‘ कहकर में हाल में आया तो रोशन टेबल पर रखे डायरी को विचित्र नजरों से देख रहा था। मुझे लगा कि कहीं श्रीमतीजी की कही बातें उसने सुन तो नहीं ली!
मैनें रोशन से कहा, ‘मै किसी जरूरी काम से थोड़ा बाहर जा रहा हूं। बस, कुछ मिनट में वापस आ जाता हूं।’ कहकर मैंने टीवी ऑन किया और रिमोट उसके हाथ मे देकर कहा कि जो मन करे चैनल देख लो। में बस थोड़ी देर में आया और बाहर निकल गया।
मैं सामान लेकर आया तो देखा कमरे में रोशन नहीं है मैने श्रीमतीजी से पूछा तो उसने कहा कि उसे नही पता कि रोशन कहा गया। थोड़ी देर पहले तो यही हाल में बैठा था। मै वाशरूम गयी थी। जब बाहर आयी तो कोई नही था यहाँ। सब जगह देख आया। थक-हार कर मैं सोफे पर जा बैठा। मेरी नजर टेबल पर रखी डायरी पर पड़ी जिस पर कुछ लिखा था। मैंने उसे उठाया तो देखा उस पर यह दोहा लिखा था-
आवत हिय हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह।
‘तुलसी’ तहां न जाइए, कंचन बरसे मेह॥
(अर्थ-जिस घर में जाने पर घर वाले लोग देखते ही प्रसन्न न हों और जिनकी आँखों में प्रेम न हो, उस घर में कभी न जाना चाहिए।)
मैं आत्मग्लानि से भर उठा। मुझे उसने छोटा कर दिया था। मेरे पद का, दौलत का नशा काफूर हो चुका था।