Maa Story in Hindi.   

माँ पर कहानी – माँ का मृत्युभोज

अनिल अपनी मां से बहुत प्यार करता था। उसकी मां का पांच दिन पहले निधन हो गया। अनिल अपनी मां की याद में खाना पीना तक भूल गया है। अनिल की मां भी उसे बहुत प्यार करती थी। आज दाह संस्कार हो हुए 5 दिन हो गए हैं। आज मृत्यु भोज के बारे में बात करने के लिए उसके चाचा जी व परिवार के प्रमुख लोग इकट्ठा हुए है। बैठक में तेरहवीं पर किए जाने वाले मृत्यु भोज के विषय में सलाह मशविरा कर रहे थे।
अनिल अपने चाचा से पूछता है – चाचा जी,मृत्यु भोज में लगभग कितना खर्चा हो जाएगा?
चाचा जी – यही लाख दो तीन लाख तक, बाकी तुम्हारी श्रद्धा है। जैसा तुम करना चाहो। जितना पैसा लगाओगे उतना अच्छा मृत्यु भोज होगा।
अनिल- ठीक है चाचा जी।
चाचा जी- क्या ठीक है ? क्या सोच रहे हो ? क्या करना है? कैसे करना है? बता ही नहीं रहे हो ?
अनिल– सोच कर बताता हूं।
इतना कहकर अनिल बाहर चला गया। उसके जाते ही वहां उपस्थित परिवार जनों व रिश्तेदारों में कानाफूसी शुरू हो गई।
सब बाते करने लगे की अनिल की मां सरकारी नौकरी में थी। काफी रुपए अनिल के लिए छोड़ कर गई है। अनिल खुद सरकारी अफसर है। फिर भी अपनी मां के लिए मृत्यु भोज करने की इच्छा नहीं है उसकी। आज कल के बच्चे अपने मां बाप के लिए एक रुपए भी खर्च नहीं कर सकते। समाज में इज्जत का जरा भी खयाल नहीं है और न ही मां की आत्मा की शांति व मुक्ति की परवाह। सच जाने बिना कितनी ही बाते लोगो ने अनिल के लिए बना दी।

कुछ देर बाद अनिल एक वृद्ध व्यक्ति जिनका नाम श्यामलाल था के साथ अंदर आया।
अनिल ने उस बुजुर्ग व्यक्ति को सोफे में बैठने को कहा। अनिल ने अपने चाचा को तरफ देखते हुए कहा– चाचा जी, में मृत्युभोज का आयोजन नही करूंगा।
वहा मोजूद सभी लोग अनिल की बात सुन कर स्तंभित रह गए। सभी लोग आपस में बात करने लगे की हमको तो पहले ही पता था की अनिल मृत्यु भोज नही करेगा। केसा बेटा है यह?
अनिल के चाचा ने गुस्से में बोले – क्या? दिमाग खराब हो गया है अनिल! शर्म नही आती तुझे।
अनिल- चाचाजी, मैं सोच समझकर बोल रहा हूं। मेरी मां स्कूल में अध्यापक थी। मुझे और मेरी बहन को उन्होंने अच्छी शिक्षा और संस्कार दिए। जिसकी बदौलत हम दोनों आज अच्छे इंसान बन पाए। मां भी मृत्यूभोज के खिलाफ थी। वो मुझे बचपन से समाज में फैली कुरीतियों के बारे में बताती रही है। इसलिए मैंने निर्णय किया है कि मृत्युभोज जैसी सामाजिक कुरीति पर अपना श्रम व धन खर्च करने की बजाय हमारे गांव में झोपड़ी में रहने वाले श्यामलाल जी की बेटी की शिक्षा का खर्च में वहन करूंगा। ऐसा करने से मेरी मां की आत्मा को भी प्रसन्नता मिलेगी।
इतना कहकर अनिल ने श्यामलाल से पूछा – आपको मेरा फैसला मंजूर है ना बाबा ?
श्यामलाल जी कुछ बोल न पाए उनकी आंखें डबडबा गईं, कंठ अवरुद्ध हो गया, उठकर उन्होंने अनिल के पैर छूने चाहे तो अनिल ने रोककर गले लगा लिया। अनिल लोगो की परवाह किए बिना श्यामलाल के साथ कमरे से बाहर आ गया। बाकी लोग अंदर कमरे में इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में बाते बनाने लगे।
अनिल को लोगो की बातो को परवाह नही थी। अनिल को मालूम था कि अगर मां होती तो उसके फैसले से सहमत होती और पूर्ण समर्थन देती। मां को याद कर उसके होंठ मुस्कुराए और पलकों नम हो चले। आज उसको अपनी मां की दी हुई शिक्षा पर गर्व हो रहा था।

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