100 से अधिक, महापुरुषों के अनमोल वचन। Part 6

More than 100 Precious words of great men.

Mahaapurushon ke Anmol Vachan in Hindi

  1. सिर देने से जो लोग नहीं डरते हैं, वे ही प्रभंजनों पर शासन करते हैं।
    – दिनकर
  2. जिसमें आत्म विश्वास नहीं, उसमें अन्य चीजों के प्रति विश्वास कैसे उत्पन्न हो सकता है।
    – विवेकानन्द
  3. आत्म विश्वास वीरता का सार है।
    – एमर्सन
  4. जो लोग शूर हैं, उन्नति करने वाले हैं, ज्ञानी हैं, पंडित हैं, बतलाओ कौन इस संसार में भाग्य की प्रतीक्षा करते हैं।
    – योग वशिष्ठ
  5. आलसी और अनुद्योगी रह कर सौ वर्ष जीने की अपेक्षा दृढ़ उद्योगी का एक दिन का जीवन श्रेष्ठ है।
    – धरम पद
  6. लक्ष्य पूरा करने के लिए अपनी समस्त शक्तियों द्वारा परिश्रम करना ही पुरुषार्थ है।
    – महर्षि पतंजलि
  7. पुरुषार्थ वह है जो भाग्य की रेखाएं मिटा दे ।
    – अनाम
  8. ज्ञानी वासनाओं के क्षीण हो जाने से कर्म को करके भी उसका फल नहीं भोगता ।
    – योग वशिष्ठ
  9. तप और तीर्थ से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मोक्ष की नहीं।
    – योग वशिष्ठ
  10. ‘कर्म योग’ के अनुसार बिना फल उत्पन्न किये कोई भी कर्म नष्ट नहीं हो सकता। प्रकृति की कोई भी शक्ति उसके फल उत्पन्न करने से रोक नहीं सकती ।
    – विवेकानन्द
  11. आत्म विश्वास का अभाव ही सभी अन्धविश्वासों का जनक है।
    – रजनीश
  12. हर मजहब में सभी सन्तों का दिल एक है, आपस में जो फर्क दीखते हैं, वे दूसरे लोगों ने पैदा किए हैं। सन्तों ने नहीं ।
    – वीरेन्द्र सिंह पलियाल
  13. सन्त सौ युगों का शिक्षक होता है।
    – एमर्सन
  14. संसार में सज्जन मनुष्य ही स्वतन्त्र होते हैं। नीच मनुष्य दास होते हैं।
    – प्लूटार्क
  15. नम्रता से तात्पर्य है अहं-भाव का एक ही क्षण में नाश ।
    – महात्मा गाँधी
  16. अपनी नम्रता का घमंड करने से अधिक निन्दनीय और कुछ नहीं है।
    – मारकस ओरेलियस
  17. अहंकार पतन का कारण है।
    – आचार्य रामानन्द
  18. जो भी मनुष्य अहंकार करता है उसका एक न एक दिन पतन अवश्य ही होगा ।
    – दयानन्द सरस्वती
  19. नाश के पूर्व मनुष्य अहंकारी हो जाता है किन्तु सम्मान सदैव मनुष्य को नम्रता प्रदान करता है।
    – बाईबिल
  20. धार्मिक व्यक्ति जीवन से भागने वाला व्यक्ति नहीं होता । जीवन से वे भागते हैं जो कायर होते हैं। कायर कभी धार्मिक नहीं हो सकता ।
    -रजनीश
  21. धर्म की कोई शिक्षा नहीं होती। धर्म की साधना होती है, अनुभव करना होता है। धर्म कोई गणित या भूगोल की पुस्तक नहीं है जिसे याद कर परीक्षा पास की जा सके ।
    – रजनीश
  22. अहंकार और प्रेम कभी एक साथ नहीं रह सकते। अहंकार प्रेम की ही अनुपस्थिति है ।
    – वीरेन्द्र सिंह पलियाल
  23. अहंकार के समूल नाश से तृष्णाओं का अन्त हो जाता है। सारे प्रपंच का मूल अहंकार है।
    – भगवान बुद्ध
  24. मानवता प्रकाश की वह नदी है जो सीमित से असीमित की ओर बहती है।
    – खलील जिब्रान
  25. केवल मनुष्य ही रोता हुआ जन्मता है, शिकायतें करता हुआ जीता है, और निराश मरता है।
    – नेहरू
  26. मनुष्य पशु नहीं है। बहुत से पशु जन्मों के अन्त में वह मनुष्य बना है ।
    – गाँधी
  27. एक स्त्री का शासन ही पुरुष के लिए कठिन काम है।
    – वृन्दावन लाल
  28. हिन्दू स्त्री को अपने पति को पहचानते देर नहीं लगती, चाहे बीस बरस बाद ही क्यों न देखे ।
    – सर्वदानन्द
  29. स्त्रियाँ केवल भोजन बनाने, बच्चे पालने, पति की सेवा करने और एकादशी व्रत करने के लिए ही नहीं हैं। उनके जीवन का लक्ष्य बहुत ऊँचा है। वे मनुष्यों के समस्त सामाजिक और मानसिक विषयों में समान रूप से भाग लेने की अधिकारिणी हैं। उन्हें मनुष्य की भाँति स्वतंत्र रहने का भी अधिकार प्राप्त है।
    – प्रेमचन्द
  30. मनष्य का चरित्र उसकी वाणी से प्रकट हो जाता है।
    – एक उक्ति
  31. जीवन का तीन चौथाई आधार अच्छा चरित्र है।
    – मैथ्यू आर्नल्ड
  32. चरित्र के सामने विद्या का मूल्य बहुत कम है।
    – प्रेमचन्द
  33. चरित्रवान अपने दोषों को सुनना पसन्द करते हैं। दूसरी श्रेणी के लोग नहीं ।
    – एमर्सन
  34. चरित्र ऐसा हीरा है जो अन्य सभी पाषाण खंडों को काट देता है।
    – वाल्टेयर
  35. दुर्बल चरित्र व्यक्ति उस सरकंडे के समान है जो हवा के हर झोंके पर झुक जाता है।
    – माघ
  36. प्रसिद्ध होने के बजाय ईमानदार होना अधिक अच्छा है।
    -थ्योडोर रूजवेल्ट
  37. ईमानदार होना दस हजार में एक होना है।
    – शेक्सपीयर
  38. दयाशील अन्तःकरण प्रत्यक्ष स्वर्ग है ।
    – स्वामी विवेकानन्द
  39. पापी अन्तःकरण की यन्त्रणा जीवित मनुष्य के लिए नरक है।
    – कालविन
  40. अनुभव हमें विश्वास दिलाता है कि असत्य और हिंसा का परिणाम स्थाई अच्छाई कभी नहीं हो सकता ।
    – महात्मा गाँधी
  41. इच्छा की प्यास कभी नहीं बुझती, न पूर्ण रूप से सन्तुष्ट होती है।
    -सिसरो
  42. जो दिखाई देता है वह तो उपयोगी है ही, जो नहीं दिखाई देता वह महान् उपयोगी है। वही धुरी है जिस पर जीवन चक्र घूमता है।
    – लाओत्से
  43. वह चलने की शक्ति देता है किन्तु इशारा नहीं करता ।
    – लाओत्से
  44. जीवन सृजन की सतत प्रक्रिया ही ईश्वर है ।
    -रजनीश
  45. संसार सुन्दर है, क्योंकि उसे ईश्वर ने बनाया है। उसी‌ का प्रतिबिम्ब है। जो संसार को गंदा कहता है वह ईश्वर का तिरस्कार कर रहा है।
    – रजनीश
  46. ईमानदार मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है।
    – वीरेन्द्र सिंह पलियाल
  47. परमात्मा सबके भीतर ऐसे विद्यमान है जैसे चिक के भीतर बड़े घराने की औरत । वह सबको देखती है किन्तु उसे कोई नहीं देख सकता ।
    – रामकृष्ण
  48. परमात्मा भक्तों के लिए साकार है व ज्ञानी के लिए निराकार है। रूप और अरूप एक ही सत्य के दो पक्ष हैं।
    – विविध
  49. मनुष्य पापी हो ही नहीं सकता। वह अज्ञानी है इसलिए दुःख पा रहा है। अज्ञान से ही पाप होते हैं।
    – वेदान्त
  50. अज्ञान ही पाप है। शेष सारे पाप तो उसकी छाया ही हैं।
    – रजनीश
  51. मानव का अन्तःकरण ही ईश्वर की वाणी है।
    – वायरन
  52. इच्छाओं से ऊपर उठ जाना हो ध्यान है।
    – स्वामी रामतीर्थ
  53. धर्म आत्मा का विज्ञान है।
    – रजनीश
  54. प्रत्येक को अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिए ।
    – दयानन्द
  55. जो उपदेश आत्मा से निकलता है, वही आत्मा पर सबसे ज्यादा कारगर होता है।
    – फुलर
  56. महान् आदर्श मस्तिष्क का निर्माण करते हैं।
    – इमन्स
  57. कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीनों का जिस जगह सेवन होता है, वही श्रेष्ठ पुरुषार्थ है ।
    – महर्षि अरविन्द घोष
  58. पुरुषार्थ मेरे दायें हाथ में है और सफलता मेरे बायें हाथ में।
    – अथर्ववेद
  59. सभी धर्म पूर्ण हैं। आवश्यकता है उनमें परस्पर सहयोग व सही उपयोग की ।
    – विविध
  60. सत्य के सम्प्रदाय नहीं बनते। सम्प्रदायों में सत्य नहीं‌‌ होता ।
    – रजनीश
  61. आत्म ज्ञान करना ही धर्म का मार्ग है।
    – अज्ञात
  62. पुरुषार्थ किये बिना भाग्य का निर्माण नहीं हो सकता ।
    – वाल्मीकि
  63. पुरुषार्थी भाग्य के अनुसार प्रतिष्ठा पाता है पर अकर्मण्य असह दुःख भोगता है।
    – महाभारत
  64. अहंकार को खोने वाले हानि में नहीं रहे हैं। बीज मिटकर वृक्ष को पा लेता है, सरिता स्वयं को खोकर सागर हो जाती है। स्वयं को खोना ही स्वयं को पाना भी है।
    – रजनीश
  65. पंडित और सन्त में वही भेद है जो बुद्धि और हृदय में है। अनुभूति का एक कण मनोज्ञान से कहीं अधिक मूल्यवान है। धर्म अनुभूति की वस्तु है ।
    – दिनकर
  66. अधर्म से मरने की अपेक्षा धर्म में मरना ही श्रेयस्कर है।
    – भैरगाया
  67. जो बाँटते हैं उनकी मिठास सराही जाती है। जो समेटते हैं वे बड़े होने पर भी भर्त्सना सहते हैं।
    – श्रीराम शर्मा
  68. धर्म का फल इस जीवन में नहीं मिलता। हमें आँखें बन्द कर नारायण पर भरोसा रखते हुए धर्म मार्ग पर चलते रहना‌ चाहिए।
    – प्रेमचन्द
  69. अहंकार करना मूर्खों का काम है।
    – शेख सादी
  70. विज्ञान हमारी उतनी शक्ति बढ़ाता है जितना हमारा घमण्ड कम करता है।
    – बर्नार्ड शॉ
  71. जिसने अहंकार छोड़ दिया वह भवसागर से तर गया ।
    – योग वशिष्ठ
  72. श्रम ईश्वर की सबसे बड़ी उपासना है।
    – कार्लाइल
  73. श्रम श्रेष्ठ पुरुषों की श्रेष्ठता का मूल मन्त्र है।
    – सेनेका
  74. श्रम मानव जीवन के लिए अनिवार्य है और यही मानव – कल्याण का मूल स्रोत है।
    – टालस्यटाय
  75. श्रम करने में ही मानव की मानवता है ।
    – बिनोवा भावे
  76. स्नेहमयी रमणी सुविधा नहीं चाहती, वह हृदय चाहती है।
    – जयशंकर प्रसार
  77. पवित्रता के लिए एकाग्रता का कोई मूल्य नहीं होता ।
    – स्वामी शिवानंद
  78. पवित्रता की भावना ही त्याग का स्वरूप है।
    – स्वामी रामतीर्थ
  79. अन्धा वह नहीं है जो देख नहीं सकता। अन्धा वह है जो देखकर भी अपने दोषों पर पर्दा डालने का प्रयास करता है।
    – महात्मा गाँधी
  80. दुनियाँ में रहो, मगर दुनियादार मत बनो ।
    – रामकृष्ण
  81. भारतीय संस्कृति में समन्वय का भाव प्रमुख होने के कारण नदी की अपेक्षा संगम अधिक पवित्र माने जाते हैं।
    – दिनकर
  82. सागर की भाँति भारतीय संस्कृति में संसार की प्रायः सभी धाराओं का समन्वय हुआ है। सागर की भाँति ही वह गुरु गम्भीर है। भारतीय दर्शन के आधार पर सागर में स्नान करना पवित्रता की चरम सीमा है। “सागरे सर्व तीर्थानि ।”
    – दिनकर
  83. आचरण की पवित्रता मनुष्य की हर इच्छा को पूर्ण कर देती है।
    -तिरुवल्लुपर
  84. हमारी इच्छाएँ जितनी ही कम हों, उतने ही हम देवताओं के समीप हैं।
    -सुकरात
  85. समस्त भय और चिन्ता इच्छाओं का परिणाम है।
    – स्वामी रामतीर्थ
  86. द्वेषी को मृत्यु-तुल्य कष्ट भोगना पड़ता है।
    – महाभारत
  87. परमेश्वर की दृष्टि में सदाचारी मनुष्य अत्यन्त सम्माननीय समझा जाता है।
    – वीरेन्द्र सिंह पलियाल
  88. विशुद्ध हृदय वाले सज्जनों की बुद्धि कभी मन्द नहीं होती है।
    – वाल्मीकि रामायण
  89. सहनशील होना अच्छी बात है, परन्तु अन्याय का विरोध करना उससे भी उत्तम है।
    – जयशंकर प्रसाद
  90. सच्चा संत लोक प्रतिष्ठा नहीं चाहता और भगवान के दिये में सन्तोष मानता है।
    – संत पिंगल
  91. संत परमेश्वर का सगुण रूप है।
    – संत ज्ञानेश्वर
  92. मुसीबत में धीरज, अभ्युदय में क्षमा, सभा में कौशलपूर्ण वाणी, युद्ध में वीरता, और श्रुति में व्यसन, ये महात्माओं को स्वभावतः सिद्ध होते हैं।
    – भर्तु हरि
  93. मैं संस्कारों में विश्वास नहीं करता, स्वाभाविक उन्नति का विश्वासी हूं ।
    – विवेकानन्द
  94. प्रसन्न रहना हमारा कर्त्तव्य है। यदि हम प्रसन्न रहेंगे तो अज्ञात रूप में संसार की बहुत भलाई करेंगे ।
    – स्टीवेंसन
  95. विवेकी लोग भी सब समय यथोचित कर्त्तव्यों का पालन नहीं कर पाते ।
    – हजारी प्रसाद
  96. कर्महीन मनुष्य भिक्षा के दान का अधिकारी नहीं हो सकता ।
    – बिनोवा भावे
  97. असफलता उसी के हाथ लगती है जो प्रयत्न नहीं करता ।
    – व्हेटली
  98. जो उद्योग को छोड़कर भाग्य पर भरोसा करते हैं वे अपने ही दुश्मन हैं।
    – योग वशिष्ठ
  99. विज्ञान ने मनुष्य का विकास नहीं किया है। केवल यंत्रों का विकास किया है।
    – रजनीश
  100. युवती का हृदय बालक के समान होता है। उसे जिस बात के लिये मना करो, उसी तरफ लपकेगा ।
    – प्रेमचन्द
  101. मुंह खोलकर कहना स्त्री-सुलभ लज्जा की सीमा को उलंघन करना है।
    – कुशवाहा कान्त
  102. दुर्बल रमणी हृदय ! थोड़ी आँच में गरम और शीतल हाथ फेरते ही ठण्ङा ।
    – जयशंकर प्रसाद
  103. शब्द और अज्ञान मिलकर सम्प्रदाय बन जाते हैं।
    – रजनीश
  104. संसार को छोड़ना नहीं है, अपने को बदलना धर्म है।
    – विविध
  105. धर्म राजपथ नहीं है। यह अकेले का मार्ग है।
    – विविध
  106. मन फूटे पेंदे के बर्तन के समान है। यदि इसे भरना बन्द कर दें तो शीघ्र ही खाली हो जायेगा। फिर उसी शून्य में होगी उपलब्धि ।
    – विविध
  107. यह मन उस लोमड़ी जैसा है जो अंगूर न मिलने पर कह देता है कि वे खट्ट हैं, किन्तु मिलने पर खट्ट होने पर भी कह देता है कि वे मीठे हैं। मन का निर्णय भरोसे योग्य नहीं है।
    – रजनीश
  108. जिस घड़ी से मनुष्य पाप को समझने लगता है उसी क्षण से उसका पश्चाताप आरम्भ हो जाता है। जैसे अग्नि के ताप से स्वर्ण शुद्ध वर्ण होकर निकलता है ऐसे ही पश्चाताप के ताप से मनुष्य के सब ताप भस्म हो जाते हैं।
    – गोविन्द वल्लभ
  109. आनन्द ही आत्मा का स्वरूप है।
    – महर्षि रमण
  110. चित्त शून्य होने पर ही धर्म की प्रतीति होती है। व्यक्ति जितना पूर्ण होगा, परमात्मा उतना ही शून्य होगा। जब व्यक्ति शून्य होगा । तब परमात्मा पूर्णता में प्रकट होगा।
    – रजनीश
महापुरुषों के अनमोल वचन Part 1, Part 2, Part 3, Part 4, Part 5, Part 6, Part 7, Part 8, Part 9, Part 10

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