Hindi story. हिन्दी कहानी
हिंदी कहानी- दोगलापन
दीक्षा आज सुबह सुबह सब्जीमंडी गई है कुछ फल खरीदने।
भैया आम क्या भाव दिए. पांच किलो लूंगी, ठीक भाव लगाना..। दीक्षा फल वाले से मोलभाव कर रही थी।
दीक्षा मेरे पड़ोस में ही रहती है। में भी आज सुबह जल्दी सब्जीमंडी गई थी सब्जी खरीदने।
क्या बात है दीक्षा.. आज इतने आम?? मेने दीक्षा से पूछा।
दीक्षा ने कहा, ” हा आंटी वो मंदिर में दान करने हैं”
“क्यों आज कुछ है क्या?” मैने पूछा।
दीक्षा ने कहा, ” हां वो बाबूजी की पुण्यतिथि है न आज।” मैने कहा, ” ओह, अच्छा, ”
मुझे याद आया आज हमारे पड़ोसी शर्मा जी की पुण्यतिथि है। पांच साल हो गए और चलचित्र की भांति कुछ चित्र सजीव हो गए। मेरा और शर्मा जी का परिवार विगत 40 वर्षो से इसी शहर में रह रहा है। शर्मा जी के परिवार से हमारे अच्छे संबंध भी थे और दोनों परिवार एक दूसरे के दुख-सुख के साथी थे। मेरे पति दुकानदारी करते थे और शर्मा जी भी परचूनी दुकान लगाते थे। शर्मा जी स्वभाव के अच्छे थे किन्तु थोड़े क्रोधी स्वभाव के थे, उन्हें जल्दी गुस्सा आ जाता था। शायद जिन्दगी ने उन्हें हर कदम पर छला था। एक धनाढ्य परिवार के इकलौते वारिस होने के बावजूद भी वो जीवन भर पैसों की तंगी से जूझते रहे। शर्माजी के दादा जी ने अच्छा व्यापार खड़ा किया था लेकिन उनके पिताजी ने अपना व्यापार अपने व्यवहार के चलते चौपट कर लिया था। शर्मा जी को जीवनयापन करने के लिए सब कुछ शुरू से करना पड़ा और फिर वे भी उसमें अधिक उन्नति नहीं कर पाए और आर्थिक तंगी से हमेशा जूझते रहे। यही उनके मन का आक्रोश उनके व्यवहार में गुस्सा बन कर फूट पड़ता था। किस्मत की मार कहें या परिस्थितियों का दोष एक दिन उन्हें लकवे का अटैक आ गया। पत्नी ने बहुत भाग दौड़ की, बहुत से डाक्टर को दिखाया, बहुत से मंदिरों में प्रार्थना करने गए।
आखिरकार शर्मा जी धीर-धीरे लकड़ी का सहारा लेकर चलने लगे थे, उनके बेटे बहू उनकी सेवा करने से हमेशा कतराते रहते थे। बेटा दुकान संभालता था। उसकी पत्नी बेटे को मां बाप के पास कम ही जाने देती थी। अपने मां बाप की सेवा करना और उनके पास बैठकर बाते करना भी उसकी पत्नी को पसंद न था।
जब भी वो ऐसा करता दीक्षा घर में क्लेश कर देती। शायद वो अपना एक अलग घर बसाना चाहती थी और शर्मा जी का बेटा इसके लिए तैयार नहीं था। दीक्षा हमेशा घरेलू काम का बहाना कर उनकी सेवा करने से हमेशा बचती रहती थी, बल्कि जब भी मौका मिलता उन्हें ताने मारने से भी नहीं चूकती।
शर्मा जी का बेटा जब भी कुछ पैसे अपने पिता के इलाज में लगाता तो दीक्षा घर मे बाबल खड़ा कर देत और कहती “बाबूजी की पेंशन थोड़े ही आ रही है जो इलाज पर खर्चा करें। हमारे भी बच्चे है उनकी पढ़ाई लिखाई का खर्चा कैसे पूरा करेगे। ” बहू के व्यंग्यबाण सुन शर्मा जी आपे से बाहर हो जाते…ये मकान मेरा है निकल जाओ यहां से। क्यों निकलें हमारा भी हक है…बहू आंखें तरेर कर कहती। शर्मा जी की पत्नी कभी बहू को समझाती कभी पति को। कभी वो अपना दुखड़ा मेरे आगे कहती। मैं उनका हाथ पकड़ कर उन्हें दिलासा देती। एक दिन तो हद ही हो गई, शर्मा जी की पत्नी और बहू मंदिर गई हुई थी। शर्मा जी घर पर अकेले थे।
बाहर फल वाले ने आवाज लगाई, लकड़ी टेकते हुए शर्मा जी बाहर आए और एक बड़ा सा आम तुलवा लिया…बाबूजी पैसे..फल वाले ने पैसे मांगे। अभी मेरे पास नहीं है कल ले जाना…अभी घर में कोई नहीं है। ठीक है…. उसने कहा। शर्मा जी आम लेकर अंदर आ गए, धो काट कर पूरे मन से उन्होंने आम को खाया। बहू खाने पीने में हमेशा कमी करती थी, यह बात शर्मा जी की पत्नी ने मुझे कई बार बताई थी। घर में जब भी शर्मा जी का बेटा कोई फल या खाने पीने की चीज लाता बहु सभी चीजे अपने कमरे में रख लेती।
बुढ़ापे में मन और जीभ शायद ज्यादा चंचल हो जाती है। यथासंभव बुजुर्गों का मन रखने के लिए उनकी पसंद का खाना पीना उन्हें देना चाहिए। ऐसा मुझे लगता है, आखिर बुढ़ापा तो सभी का आना है एक दिन। दूसरे दिन फल वाले ने आवाज लगाई, “भाभीजी, फल चाहिए ”
शर्मा जी की बहू दीक्षा ने घर के अंदर से ही कहा, “आज कुछ नहीं चाहिए”
फल वाले ने कहा,” अरे वो कल के पैसे तो दे दो”
कौनसे पैसे…? दीक्षा बाहर आकर चिल्लाई।
फल वाले ने कहा,” वो कल बाबूजी ने आम लिया था, कहा था कल पैसे ले जाना”
यह सुनते ही बहू का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। फल वाले को पैसे देकर वो बोली..आज तो दे रही हूं, आज के बाद जिसे फल देगा उसी से पैसे ले लेना। तमतमाती हुई दीक्षा अंदर आई। घर में बवाल मच गया। वो शर्मा जी को खरी खोटी सुनाने लगी, पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं या आपने हमारे लिए खजाना छोड़ रखा है। खाने का इतना ही शौक है तो कमा कर रखते। बहू के मन में जो आया बोलती चली गई। शर्मा जी ने भी उसे बहुत खरी खोटी सुनाई। ससुर बहू की लड़ाई की चर्चा पूरे मोहल्ले में कई दिनों तक होती रही। यह सब सहन करते-करते शर्मा जी की पत्नी अंदर ही अंदर घुटने लगी। फिर कुछ दिनों बाद शर्मा जी की पत्नी का स्वर्गवास हो गया। पत्नी की जुदाई से आहत शर्मा जी भी टूट गए और छह महीने के बाद ही चल बसे। आज उनकी पुण्यतिथि पर आम दान करके दीक्षा शायद अपने अपराधबोध को छिपाना चाहती थी। यही आम अगर शर्मा जी के जीवन में उन्हें पेटभर खाने को मिल जाते तो शायद उनकी आत्मा तृप्त हो जाती।
इस कहानी में वर्णित परिवार की तरह आज भी कई ऐसे ही परिवार हैं और ऐसे परिवारों की वजह से ही वृद्धाश्रम चल रहे हैं।